वायु-परागण (Anemophily) :-
जब एक पुष्प का परागकण दूसरे पुष्प के वर्तिकाग्र तक वायु द्वारा पहुंचते हैं तो इस प्रकार के परागण को वायु-परागण कहते हैं, वायु परागित पुष्पों में आकर्षण, मकरग्रंथियों और सुगंध का अभाव होता है इस कमी को पूरा करने के लिए पुष्पों में असंख्य परागकण बनते हैं।
जैसे – मक्का, चावल, गेहूं, घास, गन्ना, ताड़ आदि के पौधों में वायु-परागण होता है।
मक्का के एक पौधे में 1,85,00,000 के लगभग परागकण बनते हैं। ऐसे पौधे के शिखर पर नर फूलों का पुष्पगुच्छ (panicle) होता है जिसे टेसेल कहते हैं। तने के आधार की ओर मादा पुष्प बनते हैं जो स्थूलमंजरी (spadix) से ढका होता है। अनेक नरम, लंबे रेशमी धागे या वर्तिकाएँ बाहर निकलती हैं। ये हवा में स्वतंत्र रूप से लटकी रहती है। जब परागकोष फटते है तब परागकण हवा में बिखर जाते हैं और उड़कर मादा पुष्पों के वर्तिकाग्रों के संपर्क में आते हैं, इस प्रकार वायु-परागण हो जाते हैं।
वायु-परागण के लिए पुष्पों में निम्नलिखित विशेषताएं होती है –
- जिस पुष्प में वायु-परागण होते है वैसे पुष्प भड़कीले नहीं होते हैं।
- मकर ग्रंथियों और सुगंध का अभाव होता है।
- इनमें परागकणों की संख्या अनगिनत होती है।
- ऐसे पुष्प के वर्तिकाग्र रोएँदार पक्षवत और शाखित होते हैं।
- पुंकेसरों के पुतंतु लंबे और मुक्तदोली अवस्था में चिपके होते हैं।
- कुछ पौधों जैसे – चीड़ (pine) में परागण पंखदार होते हैं।
जल-परागण (Hydrophily) :-
जब नर पुष्प का परागकण दूसरे पुष्प के वर्तिकाग्र पर जल द्वारा पहुंचते हैं तो उसे जल-परागण कहते हैं। जल-परागण सामान्यतः जलीय पौधों में होता है परंतु कुछ पौधों, जैसे कमल में कीट-परागण होता है।
हाइड्रिला तथा वेलिसनेरिया में जल-परागण होता है।
वेलिसनेरिया में नर पौधे तथा मादा पौधे अलग-अलग होते हैं। जब नर पुष्प परिपक्व हो जाते हैं तब वे पौधे से अलग होकर पानी पर तैरने लगते हैं। मादा पौधे में वृंत लंबाई में वृद्धि करके पुष्प को जल की सतह पर लाता है। नर-पुष्प जैसे ही मादा पुष्प के संपर्क में आता है, परागकोषों स् परागकण निकलकर वर्तिकाग्र से चिपक जाते हैं और इस प्रकार जल-परागण हो जाता है। परागण के पश्चात मादा पुष्पों के वृंत कुंडलित होकर फिर पानी में चले जाते हैं जहां बीज और फलों का निर्माण होता है।
पक्षी-परागण (Ornithophily) :-
जब नर पुष्प का परागकण मादा पुष्प के वर्तिकाग्र पर पक्षी द्वारा पहुंचते हैं तो इसे पक्षी-परागण कहते हैं। पक्षियों द्वारा परागित होने वाले पुष्प बड़े, रंगीन तथा गंधहीन होते हैं।
पक्षी लाल, पीले तथा नारंगी रंग के पुष्पों की ओर ज्यादा आकर्षित होते हैं।
जैसे – झुमका, यूकेलिप्टस, कैंम्पसिस र्डिकेन्स आदि पौधों में पक्षी-परागण होते हैं।
कैंपसिस रेडिकंस नामक पौधे में हमिंग पक्षी से पर-परागण होता है। मधु संचय करने वाली तथा भिनभिनाने वाली छोटे पक्षियों की चोंच लंबी तथा नुकीली होती है, ये पुष्पों की मकर ग्रंथियों से मकरंद चुस्ती है। इस क्रम में एक पुष्प के परागकण चोंच पर चिपक जाते हैं, जब पक्षी दूसरे पुष्प पर जाता है उस समय चोंच में लगे परागकण वर्तिकाग्र के संपर्क में आ जाते हैं।
पराग-स्त्रीकेसर संकर्षण (Pollen-pistil interaction) :-
वर्तिकाग्र पर परागकणों के गिरने से लेकर बीजांड में पराग नलिका के प्रवेश होने तक की सभी घटनाओं को पराग-स्त्रीकेसर संकर्षण कहा जाता है।
प्राकृतिक परागण द्वारा यह सुनिश्चित नहीं होता है कि वर्तिकाग्र पर उसी प्रजाति का पराग पहुंचा है। वर्तिकाग्र पर गिरने वाले परागकण या तो उसे पादप के होते हैं या किसी अन्य पादप के। स्त्रीकेसर में यह क्षमता होती है कि वह सही और गलत प्रकार के परागकणों को पहचान ले तथा सही प्रकार के परागकणों को अंकुरित होने दें। यह पहचान सर्वप्रथम वर्तिकाग्र से प्रारंभ होती है।
यदि परागकण सही प्रकार का होता है तब वर्तिकाग्र उसे स्वीकार कर परागण-पश्च घटना के लिए प्रोत्साहित करती है तथा परागनलिका को भ्रूणकोष तक जाने की स्वीकृति देती है।
स्वीकृति के बाद परागकण अंकुरित होते हैं। परागनलिका वर्तिकाग्र से होती हुई भ्रूणकोष तक पहुंचती है जहां निषेचन की क्रिया संपन्न होती है।
Nice sir