पृथ्वी पर जीवो का क्रमबद्ध विकास हुआ है। आधुनिक क्रमविकास के सिद्धांत डार्विन के प्राकृतिक चयन पर आधारित है किंतु इसके पूर्व अनेक विद्वानों के द्वारा जीवो के विकास से संबंधित अनेक सिद्धांत प्रस्तुत किए गए जिन्हें वर्तमान में मान्यता प्राप्त नहीं हैं। क्रमविकास के सिद्धांतों में प्रमुख है लामार्कवाद तथा डार्विनवाद।
लामार्कवाद (Lamarckism) :
लामार्क एक बड़े दार्शनिक और जीव वैज्ञानिक थे। सर्वप्रथम, उनके द्वारा क्रमविकासवाद का एक पूरा विवरण दुनिया के सामने रखा गया। इनका क्रमविकास का सिद्धांत Philosophic Zoologique नामक पुस्तक में 1809 में प्रकाशित हुआ था। इनके क्रमविकास के सिद्धांत को लामार्कवाद कहते हैं।
लामार्कवाद की मुख्य बातें निम्नालिखित हैं –
- जीवन के अंदर की शक्ति शरीर के विभिन्न अंगों की वृद्धि करती है।
- परिवर्तित वातावरण का जंतुओं पर अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है और इससे नई आवश्यकताएँ उत्पन्न होती है।
- परिवर्तित आवश्यकताओं से नई आदत लगती है।
- नई आदतों के कारण रचनाओं का उपयोग और अनुपयोग होता है।
- उपयोग और अनुपयोग के कारण रचनाओं में परिवर्तन होता है अर्थात नए लक्षणों का उपार्जन होता हैं।
- उपार्जित लक्षणों की दूसरी पीढ़ी में वंशागति होती है।
लामार्कवाद की आलोचनाएं (Criticism of Lamarckism) :
- लामार्क का प्रथम विचार, अर्थात आकार में वृद्धि की प्रवृत्ति, अनेक विकासीय दिशाओं के लिए सही सिद्ध हो सकता है, किंतु यह सभी विकासीय दिशा के लिए सही नहीं है।
- उनका द्वितीय विचार था कि नए अंगों का निर्माण नई आवश्यकताओं के कारण होता है, उनका यह अनुमान निराधार है।
- उनका मत था कि वनस्पतियों में वातावरण अपना सीधा प्रभाव डालता है जिसके फलस्वरूप नई रचनाओं का निर्माण होता है। किंतु जंतुओं में यह तंत्रिका तंत्र के माध्यम से प्रभाव डालता है। जैसे जिराफ की लंबी ग्रीवा पीढ़ी दर पीढ़ी उसके बढ़ते रहने के ही कारण है।
- उनके तृतीय विचार का प्रश्न है प्रयोग अथवा अनुप्रयोग के प्रभाव के अनुसार निरंतर अभ्यास अथवा प्रयोग के कारण रचनाओं का विवर्धन संभव हो सकता है, जैसे भार उतोलक की पेशियाँ काफी सुदृढ़ एवं विवर्धित हो जाती है। किंतु यह कम हो जाता है यदि खिलाड़ी अभ्यास करना छोड़ दें, इनकी संतानों में निश्चय ही उपार्जित लक्षणों की वंशागति नहीं होती।
- उनका चौथा विचार था कि उपार्जित लक्षणों की वंशागति होती है, सही नहीं प्रतीत होता है। इस विचार की पुष्टि करने हेतु अनेक प्रयोग किए गए जैसे सैलामेंडर पर कैमरन का प्रयोग, चुहिया पर समनर का प्रयोग आदि।
लामार्कवाद के समय में उपार्जित लक्षणों की वंशागति का सिद्धांत मान्य था। लेकिन आज हम जानते हैं कि आनुवंशिक लक्षणों का संक्रमण जीनों द्वारा ही दूसरे पीढी में होता है।
नव-लामार्कवाद (Neo-Lamarckism) :
वर्तमान सदी में लामार्कवाद (क्रमविकास के सिद्धांत) में पुनः अभिरुचि उत्पन्न हुई। इस तथ्य को सिद्ध करने के लिए कि जंतुओं के आकार एवं रूप-रंग में परिवर्तन वातावरण में हुए परिवर्तन के फलस्वरुप होते है, इसकी पुष्टि हेतु प्रायोगिक प्रमाण भी प्रस्तुत किए गए हैं। वातावरण में परिवर्तन के फलस्वरुप जनकों के वंशज अपने मुल जनकों से थोड़ा बहुत भिन्न भी होते हैं। इस मत के पुनर्जागरण को नव–लामार्कवाद कहते हैं।
- टावर ने अपना प्रयोग पोटैटो बीटिल आलू में पाया जाने वाला एक प्रकार का कीट पर किया है।
- इन्होंने इन कींटो को अपरिपक्व आवस्थाओं की चरम ताप एवं आर्द्रता में रखा।
- इसके परिणामस्वरूप उनमें सुस्पष्ट परिवर्तन दृष्टिगोचर हुए तथा इन परिवर्तनों की वंशागति भी हुई।
- इस उदाहरण में परिवर्तन शरीर पर वातावरण के सीधे प्रभाव के कारण नहीं, अपितु कोशिकाओं के गुणसूत्रों में परिवर्तन के कारण प्रेरित हुआ था जो जनन कोशिकाओं में रूपांतरित हो गया।