क्रमविकास की क्रियाविधि

क्रमविकास की क्रियाविधि (Mechanism of evolution) :-

किसी भी जीव की वास्तविक रचना आनुवंशिकीय एवं वातावरणीय कारणों द्वारा निश्चित होती है। लामार्क (Lamark) ने क्रमविकास की क्रियाविधि में केवल वातावरण पर ही बहुत अधिक बल दिया था। वीसमान (Weismann) ने वातावरण की उपेक्षा की थी।

  • यह विल्कुल स्पट है कि आनुवंशिकी के बिना नई जाती का निर्माण तथा विकास संभव नहीं है। क्रमविकास के लिए विभिन्नता (variation) अनिवार्य है।
  • डार्विन ने वर्षों तक अपने अध्ययन के मध्य यह सिद्ध किया की जातियों के अंदर विभिन्नताएं रहती है। उन्होंने यह भी देखा कि उसी मां-बाप से उत्पन्न संतानों में भी थोड़ी – बहुत विभिन्नता है।
  • अन्य वैज्ञानिकों के अनुसंधानों के आधार पर डार्विन ने यह निष्कर्ष निकला कि जातियाँ परिवर्तनीय है।
  • प्रकृति आनुवंशिकीय विभिन्नताओं का चयन करती है। इन चयनित विभिन्नताओं का वातावरण के प्रति अनुकूलन हो जाता है। अतः विभिन्नता (variation), चयन (selection) तथा अनुकूलन (addaptation) ही विकासक्रम की दिशा को निश्चित करते हैं।

संश्लेषण सिद्धांत (Synthetic theory) :-

यह विकासवाद का सबसे आधुनिक सिद्धांत है। ह्यूगो डी ब्रिज ने कहा कि उत्परिवर्तन ही एकमात्र ऐसा कारक है जिसके कारण विकास संभव हो सका है।

अनुकूली विकिरण (Addaptive radiation) :-

गैलपैगोस द्विप में डार्विन ने एक विशेष प्रकार का काली छोटी चिड़िया (डार्विन फिंच) देखा एवं उन्होंने महसूस किया कि इस द्वीप में विभिन्न प्रकार की फिंच पाई जाती है।

  • उनके परिकल्पित सभी प्रकार के फिंच इस द्वीप में विकसित हुई थी। यह पक्षी बीजपत्री के साथ अन्य स्वरूप में अनुकूलित हो सकता था।
  • चोंच के ऊपर उठने के साथ यह कीटभक्षी या शाकाहारी फिंच में परिवर्तित हो गया। इस तरह एक भू-भौगोलिक क्षेत्र में विभिन्न प्रजातियों के विकास को अर्थात विभिन्न प्रजातियों के विकास का प्रक्रम एक बिंदु से शुरू होकर अन्य भौगोलिक क्षेत्रों तक प्रसारित होने को अनुकूली विकिरण कहा जाता है।
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  • ऑस्ट्रेलियाई मार्सुपियल एक दूसरा उदाहरण है। इनमें अधिकांश एक – दूसरे से भिन्न थे एवं यह सभी महाद्वीप के अंतर्गत थे। जब एक से अधिक अनुकुली विकिरण एक अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्र में प्रतिनिधित्व करते हैं तो इसे अभिसारी विकास कहा जाता है।

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