पृथ्वी पर जीवो का क्रमबद्ध विकास हुआ है, आधुनिक क्रमविकास के सिद्धांत डार्विन के प्राकृतिक चयन पर आधारित है किंतु इसके पूर्व अनेक विद्वानों द्वारा जीवो के विकास से संबंधित अनेक सिद्धांत प्रस्तुत किए गए जिन्हें वर्तमान में मान्यता प्राप्त नहीं हैं।
क्रमविकास के सिद्धांतों में प्रमुख है लामार्कवाद तथा डार्विनवाद।
लामार्कवाद (Lamarckism) :-

लामार्क एक बड़े दार्शनिक, जीव वैज्ञानिक थे सर्वप्रथम उनके द्वारा क्रमविकासवाद का एक पूरा विवरण दुनिया के सामने रखा गया। सर्वप्रथम इनका क्रमविकास के सिद्धांत Philosophic Zoologique नामक पुस्तक में 1809 में प्रकाशित हुआ था। इनके क्रमविकास के सिद्धांत को लामार्कवाद कहते हैं।
इस सिद्धांत की मुख्य बातें निम्नांकित है –
(1). जीवन के अंदर की शक्ति शरीर के विभिन्न अंगों की वृद्धि करती है।
(2). परिवर्तित वातावरण का जंतुओं पर अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है और इससे नई आवश्यकताएँ उत्पन्न होती है।
(3). परिवर्तित आवश्यकताओं से नई आदत लगती है।
(4). नई आदतों के कारण रचनाओं का उपयोग और अनुपयोग होता है।
(5). उपयोग और अनुपयोग के कारण रचनाओं में परिवर्तन होता है अर्थात नए लक्षणों का उपार्जन होता हैं।
(6). उपार्जित लक्षणों की दूसरी पीढ़ी में वंशागति होती है।




लामार्कवाद की आलोचना (Criticism of Lamarckism) :-
- लामार्क का प्रथम विचार, अर्थात आकार में वृद्धि की प्रवृत्ति, अनेक विकासीय दिशाओं के लिए सही सिद्ध हो सकता है, किंतु यह सभी विकासीय दिशा के लिए सही नहीं है।
- उनका द्वितीय विचार था कि नए अंगों का निर्माण नई आवश्यकताओं के कारण होता है, उनका यह अनुमान निराधार है।
- उनका मत था कि वनस्पतियों में वातावरण अपना सीधा प्रभाव डालता है जिसके फलस्वरूप नई रचनाओं का निर्माण होता है। किंतु जंतुओं में यह तंत्रिका तंत्र के माध्यम से प्रभाव डालता है। जैसे जिराफ की लंबी ग्रीवा पीढ़ी दर पीढ़ी उसके बढ़ते रहने के ही कारण है।
- उनके तृतीय विचार का प्रश्न है प्रयोग अथवा अनुप्रयोग के प्रभाव के अनुसार निरंतर अभ्यास अथवा प्रयोग के कारण रचनाओं का विवर्धन संभव हो सकता है, जैसे भार उतोलक की पेशियाँ काफी सुदृढ़ एवं विवर्धित हो जाती है। किंतु यह कम हो जाता है यदि खिलाड़ी अभ्यास करना छोड़ दें, इनकी संतानों में निश्चय ही उपार्जित लक्षणों की वंशागति नहीं होती।
- उनका चौथा विचार था कि उपार्जित लक्षणों की वंशागति होती है, सही नहीं प्रतीत होता है। इस विचार की पुष्टि करने हेतु अनेक प्रयोग किए गए जैसे सैलामेंडर पर कैमरन का प्रयोग, चुहिया पर समनर का प्रयोग आदि।
लामार्कवाद के समय में उपार्जित लक्षणों की वंशागति का सिद्धांत मान्य था। लेकिन आज हम जानते हैं कि आनुवंशिक लक्षणों का संक्रमण जीनों द्वारा ही दूसरे पीढी में होता है।
नव लामार्कवाद (Neo – Lamarckism) :-
वर्तमान सदी में लामार्कवाद ( क्रमविकास के सिद्धांत ) में पुनः अभिरुचि उत्पन्न हुई। इस तथ्य को सिद्ध करने के लिए कि जंतुओं के आकार एवं रूप – रंग में परिवर्तन वातावरण में हुए परिवर्तन के फलस्वरुप होते हैं। इसकी पुष्टि हेतु प्रायोगिक प्रमाण भी प्रस्तुत किए गए हैं। वातावरण में परिवर्तन के फलस्वरुप जनकों के वंशज अपने मुल जनकों से थोड़ा बहुत भिन्न भी होते हैं। इस मत के पुनर्जागरण को नव लामार्कवाद कहते हैं।
टावर ने अपने प्रयोग पोटैटो बीटिल आलू में पाया जाने वाला एक प्रकार का कींट पर किया है। इन्होंने इन कींटो की अपरिपक्व आवस्थाओं की चरम ताप एवं आर्द्रता में रखा। इसके परिणामस्वरूप उनमें सुस्पष्ट परिवर्तन दृष्टिगोचर हुए तथा इन परिवर्तनों की वंशागति भी हुई। इस उदाहरण में परिवर्तन शरीर पर वातावरण के सीधे प्रभाव के कारण नहीं, अपितु कोशिकाओं के गुणसूत्रों में परिवर्तन के कारण प्रेरित हुआ था जो तदनंतर जनन कोशिकाओं में रूपांतरित हो गया।
डार्विनवाद (Darwinism) :-




चार्ल्स डार्विन एक अंग्रेज प्रकृतिवैज्ञानिक थे। उन्होने क्रमविकास की प्रक्रिया की व्याख्या के लिए प्रसिद्ध प्राकृतिक चुनाव का सिद्धांत प्रस्तुत किया जिसे डार्विनवाद करते हैं। सन् 1859 ईo में चार्ल्स डार्विन द्वारा लिखित एक पुस्तक The Origin of Species प्रकाशित हुई जिसमें डार्विनवाद का उल्लेख किया गया।
डार्विनवाद की मुख्य बातें निम्नांकित है –
1.विभिन्नता की सर्वव्यापकता :-
किसी भी जाति के दो जीव समरूप नहीं होते हैं। कुछ विविनताएँ उपयोगी तथा कुछ अनुपयोगी होती हैं। उपयोगी विभिन्नताओं वाले जीव अस्तित्व संघर्ष में जीवित रहने के लिए अधिक समर्थ होते हैं।
2. प्रगुणन की तेज दर :-
जंतु गुणोत्तर अनुपात में प्रजनन करते हैं जैसे एक मछली असंख्य अंडे देती हैं प्रजनन इसी प्रकार से चलता रहे और सभी प्राणी जीवित रहे तो कुछ वर्षों में पृथ्वी के सभी भाग उनसे ढक जाएगी।
3. अस्तित्व के लिए संघर्ष :-
पृथ्वी पर भोजन और रहने के लिए स्थान सीमित होती है। सभी प्राणी आपस में भोजन और स्थान के लिए संघर्ष करते हैं, यह संघर्ष अंतराजातीय, अंतरजातीय, पर्यावरणीय हो सकता है।
4. योग्यतम की अतिजीविता :-
जीवन संघर्ष में वही योग्यतम होते हैं जो शक्तिशाली होते हैं और जिनमें कुछ उपयोगी लक्षण होते हैं, ऐसे ही जीव जीवित रह पाते हैं और अनुपयोगी गुण वाले दूसरे जीव नष्ट हो जाते हैं, इस प्रकार प्रकृति अनुकूल प्राणियों को चुन लेती है और प्रतिकूल प्राणियों को छाँट देती हैं। इस तथ्य को प्राकृतिक चुनाव कहते हैं।
5. उपयोगी विभिन्नताओं की वंशागति :-
प्राकृतिक चुनाव की क्रिया चलती रहती है और विभिन्नताएँ यदि उपयोगी होती है, तो दूसरी पीढ़ी में उनकी वंशागति हो जाती है।
ऐसी विभिन्नताएँ जिनसे जीवन संघर्ष में जीवित रह पाने में सहायता मिलती है, अत्यंत सूक्ष्म होती है और कुछ पीढियों के बाद ही उनका उचित विकास होता है। इस अवस्था में ऐसे जीव पूर्वजों से बिल्कुल भिन्न होते हैं और इस प्रकार एक नई जाति का विकास होता है।




इस प्रकार प्राकृतिक चुनाव एक क्रिया है जिसमें प्रकृति ऐसे व्यक्तियों को चुनती हैं जिनमें उपयोगी रूपांतरण होते हैं, ऐसे जीन अपने रूपांतरणों को प्रजनन के माध्यम से दूसरी पीढ़ी में पहुंचा देते हैं और अंत में संतान से नई जाति का उद्भव होता है।
नव डार्विनवाद (Neo Darwinism) :-
सभी जीवो में एक दूसरे से भिन्न होने की प्रवृत्ति होती है। डार्विन ने यह निष्कर्ष निकाला कि यहां प्राकृतिक चुनाव होता है तथा जीवों में अस्तित्व के लिए घोर प्रतियोगिता होती है। इस संघर्ष में कुछ रह जाते हैं और कुछ नष्ट हो जाते हैं।
अस्तित्व के लिए संघर्ष और अप्रश्नीय है। डार्विनवाद पर कुछ आपत्तियां भी उठाए गए। डार्विनवाद की आलोचना के बाद डार्विन के समर्थक वैज्ञानिकों ने प्रयोग एवं अनुसंधानों से इस सिद्धांत में स्थित कमियों को दूर करके डार्विनवाद को संशोधित एवं रूपांतरित रूप में प्रस्तुत किया। इसे नव डार्विनवाद करते हैं। वेलेस, डेवनपोर्ट, वेल्डेन आदि वैज्ञानिकों ने डार्विनवाद का समर्थन किया। इन्होंने डार्विनवाद में निम्नांकित परिवर्तन किए।
- अर्जित तथा कायिक विभिन्नताएँ आनुवशिक नहीं होती हैं और न ही इनकी वंशागति होती है। ये जैव विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं है।
- केवल गुणसूत्रों एवं जीवों में उत्पन्न विभिनताएँ ही वंशागत होती है एवं इन्ही विभिन्नताओं के संचरण से नई जाति की उत्पत्ति होती है।